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Wednesday, September 26, 2018

भंडारा की वास्तविकता क्या है ?

     दोस्तों भंडारा प्राचीन काल से चली आ रही एक सामाजिक परम्परा या सामाजिक सुरीति है।जो विशेष कर मानव समाज सेवा से सम्बन्ध रखती है।इस नेक प्रथा का सुभारम्भ हमारे मानव समाज में नेक प्रेरणा श्रोतों के द्वारा हुआ जिसमें हमारे अपने भगवान के प्रति श्रदया भावना से प्रेरित प्रेरणा का मुख्य स्थान था ।
     हमारे प्राचीन अविकसित समाज में गरीबी एक मुख्य समस्या थी।और गरीबी का वो आलम था कि हमारे समाज के एक बड़े तबके को 'दो जून की रोटी' मोहताज नही थी । तथा समाज में एक तबका ऐसा भी था जिसे अक्सर 'एक जून का खाना' भी नसीब नही हो पाता था,उसे खाली पेट ही सो जाना पड़ता था। हमारे मानव समाज में भूख एक बड़ी पीड़ा थी जो मनुष्य को असमय मृत्यु की ओर खींच ले जाती थी ।
     हमारे प्राचीन समाज के एक छोटे से सामर्थवान तबके में एक तबका ऐसा भी था जो भूख से कराह रहे समाज के दर्द से अनभिज्ञ नही था । अंतरात्मा की नेक प्रेरणा और अपने भगवान के प्रति श्रदया भाव से प्रेरित हो कर वही मृदु हिर्दयी तबका विशेष अवसरों पर भूख से ब्याकुल समाज के भोजनार्थ भंडारे का प्रयोजन आरम्भ किया । उस विशेष अवसर पर गरीब वर्ग को भोजन से तृप्ति द्वारा प्राप्त खुसी व अपने प्रति कृतज्ञता के भाव को महसूस कर सामर्थवान दयालु तबके को विशेष सकून व परम् आनन्द का अनुभव प्राप्त होता था । समय की उपयोगिता के आधार पर यही प्रयोजन धीरे-धीरे हमारे मानव समाज में सु रीति का रूप धारण कर लिया ।
     दोस्तों अब प्रश्न यह उठता है कि क्या आज भी भंडारे की उपयोगिता या महत्व उतना ही है जितना कि प्राचीन काल में था ? क्या आज भी हमारे मानव समाज में 'दो जून की रोटी' नसीब होना एक मुख्य समस्या है ? क्या आज भी हमारे समाज में 'भूख एक बड़ा दर्द' है ? क्या आज भी भंडारे में शामिल लोग वो गरीब होते है जो भूख की पीड़ा को महशूश करते हैं ?
    दोस्तों हमारा मानव समाज आज के समय में विकाश के कई पायदान पार कर चुका है ।आज का हमारा समाज 'दो जून की रोटी' का मोहताज नही है । पर हां आज भी हमारे समाज का एक बड़ा तबका गरीब है । आज भी गरीबी है हमारे मानव समाज में पर मुख्य समस्या रोटी नही है। मुख्य समस्या है गरीब परिवारों का पालन पोषण । आज भी हमारे समाज में पीड़ा है लेकिन वो भूख की पीड़ा नही 'बीमारी की पीड़ा 'है जो गरीबी के कारण इलाज न मिल पाने से गरीबों को असमय मृत्यू की ओर खींच ले जाती है । आज भी हमारे समाज में दर्द है लेकिन वो 'भूखे पेट का दर्द 'नही बल्कि गरीबी के कारण समय पर 'बिटिया के हाथ पीले 'न कर पाने का दर्द है । आदि न जानें कितनी समस्याओं के "दर्द "से हमारा गरीब तबके का समाज आज भी कराह रहा है ।और हम है कि प्राचीन समाज के भंडारे की सु रीति को आज भी उसी स्वरूप को ही ढोये जा रहे है जो स्वरूप शायद समय के साथ अपनी उपयोगिता खो चुका है
     दोस्तों भंडारे की वास्तविकता को समझनें के उपरांत समय के आधार पर इसकी उपयोगिता व महत्व को ध्यान में रख कर समाज में इस सु रीति के स्वरूप को बदलनें की आवश्यक्ता महसूस हो रही है । जिससे गरीब तबके को राहत व प्रायोजक तबके को वास्तविक सकून व परम् आनन्द प्राप्त हो सके तथा हमारी अपने भगवान के प्रति श्रदया भावना का विकास हो।

     धन्यवाद
     

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